5 जून 2013

लगता है तुम आ रहे हो

आँचल में छिपा लूँगी
अभिव्‍यक्ति उन्‍वान (चित्र)- 59
ये चाँद तुम्‍हें देखकर
नज़र तुम्‍हें लगा दे न
पीठ किये बैठी हूँ
बाहों में छिपा लूँगी
आ जाओ के अब चँदनियाँ
छिटकी है, इस उजास में
डरती हूँ, कोई देख ले न
धोरों में छिपा लूँगी
शीतल शरदप्रभा है
पर बदन है स्‍वेद से भरा
धड़क रहा है दिल तुम्‍हें
सीने में छिपा लूँगी
लगता है--- तुम--- आ --रहे --हो

(कवि मन ‘एकल काव्‍य पाठ’ में अभिव्‍यक्ति 59 (चित्र) पर नवसृजित रचना पोस्‍ट की- 4-6-2013)

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