2 अक्तूबर 2017

बापू की राह अहिंसा की (गीतिका)


छंद- द्विगुणित पदपादाकुलक (राधेश्‍यामी) चौपाई
(विधान- 16, 16 आरंभ गुरु व अंत 2 गुरु से. द्विकल के बाद 2 चौकल)
पदांत- हैं
समांत- अलते

(लय- उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो सोवत है)    

बापू की राह अहिंसा की, जन-जन हिंसा में पलते है.
रातें बेचैनी में कटती, नित दहशत में दिन ढलते हैं.

पहचान नहीं कपड़ों से हो, पहचानें सब चरित्र से ही,
बापू के ये अनमोल वचन, उम्‍मीदों को बस छलते हैं.

है आज अहिंसा दिवस मगर, नहिं संभव हो न कहीं हिंसा,
कब पूरे शिक्षित होंगे हम, यह स्‍वप्‍न हमें अब खलते हैं.

जब जात-पाँत, आरक्षण हो, हो राजनीति जब वोटों की,
अपना-अपना जब स्‍वार्थ पले, संधान प्रगति के टलते हैं.

हे बापू, तेरा भारत अब, जब-तब ही करता याद तुझे,
कुछ ही गाँधीवादी हैं जो, तेरे रस्‍ते पर चलते हैं.    

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